गुरुवार, 10 मई 2012

सआदत हसन मंटो

११ मई. १९१२. यानी आज से सौ बरस पहले जन्म हुआ था सआदत हसन मंटो का. मंटो के नाम से हिंदी का शायद ही कोई पाठक अपरिचित होगा. उनकी विवादस्पद कहानियां, जैसे काली सलवार, बू, ठंडा गोश्त, खोल दो तो उन पाठकों ने भी पढ़ी होंगी जो कहानियाँ पढ़ने में ज्यादा रूचि नहीं रखते. नया ज्ञानोदय ने अपना नया अंक मंटो पर केन्द्रित किया है. जिसमे उनकी दस कहानियाँ हैं. गोपीचंद नारंग और नीलाभ ने मंटो का आकलन किया है तो जसविंदर कौर बिंद्रा ने शब्द चित्र उकेरा है. मंटो की कहानियों पर अश्लीलता के आरोप लगे और उन पर लाहौर में मुक़दमे भी चले. विभाजन के दौरान मंटो पाकिस्तान चले गए. पाकिस्तान में उन्होंने अपनी पहली कहानी 'ठंडा गोश्त' लिखी जिसे उन्होंने 'नुकूश' में प्रकाशित होने के लिए दी. लेकिन नुकूश' के संपादक अहमद नदीम कासमीं ने इसे अपनी पत्रिका के योग्य नहीं समझा और उनकी दूसरी कहानी 'खोल दो' को प्रकाशित करना मुनासिब समझा. जो हाथो-हाथ लिखी गयी थी. उनका दुर्भाग्य देखिये कि जिस कारण उन्होंने 'ठंडा गोश्त' को प्रकाशित करने से एतराज किया था वो मुसीबत 'खोल दो' के छपते ही उनके सामने खड़ी हो गयी. कहानी पर आरोप लगे और पत्रिका ही बंद हो गयी. मंटो के बारे में काफी लिखा जा चुका है और अभी काफी लिखा जाना शेष है. भारत और पाक में वे सामान रूप से चर्चित और प्रिय हैं. मैंने इनकी सर्वाधिक चर्चित कहानियों को काफी पहले ही पढ़ लिया था लेकिन उन्हें सिर्फ पढ़ना इतना आसान कभी नहीं रहा. 

यदि उनकी कमियों की ओर भी निगाह डालनी हो तो  उपेन्द्र नाथ अश्क को पढ़ना जरूरी है जो उनसे उम्र में कुछ बड़े और उनके समकालीन थे. इस पत्रिका में - मेरा दोस्त, मेरा  दुश्मन नाम से उनका आलेख दिया गया है.  

सोमवार, 7 मई 2012


शुक्रवार के नए अंक को देखकर उछल पड़ा. काटजू साहब ने फिर कोई ऐसी बात कह दी है जिसने बवाल मचा दिया है. सारे काम छोड़ कर सभी लेख पढ़ डाले. लेकिन सहमत नहीं हो पाया. काटजू साहब ने जो कहा विद्वान् लोग उससे असहमति दर्शाते- दर्शाते खुद काटजू साहब से ही असहमत होते दिखे. यह ठीक नहीं है. ९० प्रतिशत से जो सहमत नहीं हैं वो अपने हिसाब से प्रतिशत कम-ज्यादा कर सकते  हैं. लेकिन उससे काटजू कैसे कटघरे में खड़े कर दिए गए? अपनी बोद्दिकता से गोलमोल लिखने वाले तो खूब मिल जायेंगे लेकिन देश की दुर्दशा पर सरे आम साफ़-साफ़ बोलने या लिखने वाले वाले कितने हैं? कमाल की बात है कि हरिशंकर परसाई और शरद जोशी की यादें हरदम ताजी रखने वाले व्यंग्यकार ज्ञान चतुर्वेदी भी इसी रौ में बह गए और शुक्रवार के पाठक इस विषय पर एक बेहतरीन व्यंग्य पढ़ने से वंचित रह गए. खुद संपादक महोदय ने भी इस विषय पर अपने सम्पादकीय में एक पैरा से अधिक लिखने से परहेज़ किया. शायद वे अपनी टीम के अशोक कुमार और रईस अहमद लाली के लेख से संतुष्ट हो गए होंगे जो इस विषय पर  एकमात्र जोरदार और balanced लेख है.