शुक्रवार के नए अंक को देखकर उछल पड़ा. काटजू साहब ने फिर कोई ऐसी बात कह दी है जिसने बवाल मचा दिया है. सारे काम छोड़ कर सभी लेख पढ़ डाले. लेकिन सहमत नहीं हो पाया. काटजू साहब ने जो कहा विद्वान् लोग उससे असहमति दर्शाते- दर्शाते खुद काटजू साहब से ही असहमत होते दिखे. यह ठीक नहीं है. ९० प्रतिशत से जो सहमत नहीं हैं वो अपने हिसाब से प्रतिशत कम-ज्यादा कर सकते हैं. लेकिन उससे काटजू कैसे कटघरे में खड़े कर दिए गए? अपनी बोद्दिकता से गोलमोल लिखने वाले तो खूब मिल जायेंगे लेकिन देश की दुर्दशा पर सरे आम साफ़-साफ़ बोलने या लिखने वाले वाले कितने हैं? कमाल की बात है कि हरिशंकर परसाई और शरद जोशी की यादें हरदम ताजी रखने वाले व्यंग्यकार ज्ञान चतुर्वेदी भी इसी रौ में बह गए और शुक्रवार के पाठक इस विषय पर एक बेहतरीन व्यंग्य पढ़ने से वंचित रह गए. खुद संपादक महोदय ने भी इस विषय पर अपने सम्पादकीय में एक पैरा से अधिक लिखने से परहेज़ किया. शायद वे अपनी टीम के अशोक कुमार और रईस अहमद लाली के लेख से संतुष्ट हो गए होंगे जो इस विषय पर एकमात्र जोरदार और balanced लेख है.
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